जैन परंपरा में ज्येष्ठ शुक्ल की पंचमी तिथि पर सदियों से श्रुत पंचमी महापर्व मनाया जा रहा है। श्रुत परंपरा वैदिक काल में चरमोत्कर्ष पर रही है। जैनधर्म में आगम को महावीर स्वामी की द्वादशांगवाणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसे महावीर के बाद से चली आ रही श्रुत परंपरा के अंतर्गत आचार्यो द्वारा जीवित रखा गया। र्तीथकर केवल उपदेश देते थे और उनके गणधर (प्रमुख शिष्य) उसे ग्रहण कर सभी को समझाते थे। उनके मुख से जो वाणी जनकल्याण के लिए निकलती थी, वह अत्यंत सरल एवं प्राकृत भाषा में ही होती थी, जो उस समय बोली जाती थी। तीर्थंकर महावीर के 11 गणधरों अर्थात श्रुतकेवलियों ने इन्हें इसी गुरु परंपरा के आधार पर अपने शिष्यों तक पहुंचाया।
एक कथानक के अनुसार, दो हजार वर्ष पहले जैन पंथ के संत धरसेनाचार्य को अनुभव हुआ कि उनके द्वारा अर्जित ज्ञान केवल उनकी वाणी तक सीमित रह जाएगा। उन्होंने सोचा कि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम होने पर ज्ञान वाणी नहीं बचेगी। तब महामुनिराज धरसेनाचार्य ने अपने सुयोग्य शिष्य पुष्पदंत एवं भूतबली मुनिराज की सहायता से ‘षट्खण्डागम’ नामक ग्रंथ की रचना की और उसे ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को प्रस्तुत किया। इस शुभ अवसर पर अनेक देवी-देवताओं ने र्तीथकरों की द्वादशांग वाणी के अंतर्गत महामंत्र णमोकार से युक्त जैन परमागम ‘षट्खण्डागम’ की पूजा की। यह दिवस शास्त्र उन्नयन के अंतर्गत ‘श्रुतपंचमी’ कहलाया। इसे ‘शास्त्र दिवस’ के नाम से भी संबोधित किया गया। इस महत्वूर्ण ग्रंथ में जैन साहित्य, इतिहास, नियम, सिद्धांत आदि का वर्णन किया गया है।
श्रुत पंचमी पर शास्त्रों की पूजा की जाती है। प्राचीन ग्रंथों की पांडुलिपियों के प्रकाशन की योजनाएं क्रियान्वित होती हैं। शास्त्रों के वेष्टन बदले जाते हैं, तरह-तरह से उन्हें सजाया जाता है।....अगला सवाल पढ़े
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