इतिहास के अध्ययन का वास्तविक प्रयोजन आत्मज्ञान की प्राप्ति हैं। अतीत का सम्यक बोध वर्तमान को ठीक-ठीक समझने में सहायक होता है जिसके आधार पर वर्तमान को संवारने तथा भविष्य-निर्माण की दिशाओं को ठीक प्रकार से निर्धारित करने का कार्य सरल हो जाता हैं। अतीत के सर्वथा तिरस्कार का आग्रह मूढ़ता का परिचायक है। किन्तु इसे भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि अतीत निरर्थक शव-वहन मात्र बनकर न रह जाएं। अतीत में क्या त्याज्य है और क्या पाह्य इस पर निरपेक्ष दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए। इतिहास-लेखन में यह निरपेक्ष दृष्टि आवश्यक है। इस पुस्तक में इस दृष्टि से प्राचीन भारत के इतिहास को इसके सर्वागीण रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इतिहास के अध्ययन का विषय मनुष्य अथवा समाज है। इसके संगठन के विविध पक्ष होते हैं और इनमें अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन भारतीय मनुष्य और समाज के सभी पक्षों-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक का समन्वित रूप में अध्ययन किया गया हैं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों को व्याख्यायित करने की चेष्टा की गई है।